सच्ची शिक्षा के पात्र बने || Sachchi Shiksha
सच्ची शिक्षा के पात्र बने ||Sachchi Shiksha
पब्लिक इंस्ट्रक्शन:-
आजकल चारों और शिक्षा के प्रचार की धूम है. जन सामान्य को साक्षर बनाने के लिए युद्धस्तर पर अभियान छिड़े हुए हैं तथा शिक्षा के नाम पर छोटे-बड़े अनेक शिक्षा-संस्थान कार्य कर रहे हैं, शिक्षा का प्रायः व्यवसायीकरण हो गया है, परन्तु दुर्भाग्य यह है कि साक्षरों की भीड़ में शिक्षितों के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं. सम्भवतः हम साक्षर एवं शिक्षित के मध्य अंतर नहीं करते हैं. विकृत विद्यालय की उपाधि को ही हम शिक्षा का पर्याय मान बैठे हैं. ब्रिटिश शासक, जिसे जनता का निर्देशन (Public instruction) कहते थे, उसी को हम शिक्षा (Education) कहने लगे हैं. शिक्षा के वास्तविक स्वरूप की उपेक्षा करते हुए हम सूचनाओं के समुच्चय को कभी नई शिक्षा कहते हैं, कभी नवोदित शिक्षा कहते हैं, कभी इक्कीसवीं शताब्दी की शिक्षा कहते हैं, आदि सूचनाओं से मस्तिष्क को भर देने वाली प्रस्तुत शिक्षा-पद्धति का विवेचन करते हुए डॉ श्रीमती एनी बीसेण्ट ने एक स्थान पर लिखा है कि "हमारे विद्यार्थी परीक्षा भवन में अपना समस्त ज्ञान उंडेल आते हैं और फिर खाली दिमाग लिए हुए जीवन में घूमते-फिरते हैं,
शिक्षा का अर्थ:-
सच्ची शिक्षा वो है जो हमारे अंदर छुपी हुई प्रतिभा को बाहर निकालनें का कार्य करें, और शिक्षा का अर्थ ही यह है कि बालक में अंतर्निहित सामर्थ्य एवं प्रतिभा को प्रकाशित करना’’, शिक्षा का अर्थ बताते हुए अनेक विचारकों ने अपने विचार दिये है, आचार्य विनोबा भावे ने कहा है कि ,” शिक्षक का कार्य कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न करना नही है, सुप्त को जाग्रत करना हैं | और यह काम बहुत कठिन है, इस कार्य को पूरा करने के लिए प्रतिबध्द शिक्षक को एक समर्पित व्यक्ति होना जरूरी हैं | जब तक शिक्षक अल्पसंतोषी एवं छात्र के हित के लिए पूर्णा निष्ठावान नहीं होगा, तब तक वह एक समर्थ एवं सम्मानित शिक्षक बन नही सकता |
मनुष्य का महत्व:-
मनुष्य के सापेक्ष महत्व पर विचार करने पर सर्वप्रथम यह तथ्य उभरकर आता है कि मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जिसके दो हाथ काम करने के लिए मुक्त हैं. केवल वही एक ऐसा प्राणी है जो केवल दो पैरों द्वारा चलने का काम कर लेता है. इंसानों में एक यह भी विशेषता दिखाई देती है कि केवल मनुष्य का ही सिर सीधा रहता है- अगर हम विचार करें तो यह पता चलेगा कि सामान्य स्थिति में केवल मनुष्य के सिर और पृथ्वी के मध्य 90' का कोण बनता है.
शिक्षा और शिल्पकला:-
मानव-जीवन में शिक्षा का वही महत्व होता है, जो संगमरमर के टुकड़े के लिए शिल्पकला कामहत्व होता है. इसी के साथ शिक्षक का स्थान उस शल्पकार के समान समझा जाता है, जो अपनी विशिष्ट सामर्थ्य द्वारा बालकरूपी संगमरमर के टुकड़ों को विश्वात्मा के निवास योग्य मन्दिर बना देता है. इस प्रकार की शिक्षा को लक्ष्य करके कवि निराला ने लिखा है कि, 'संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियाँ है, शिक्षा सबसे बढ़कर है." विचारक बर्क ने भी एक निबन्ध मे लिखा है कि, "शिक्षा क्या है? पुस्तकों का ढेर! बिल्कुल नहीं, बल्कि विश्व के साथ, मनुष्यों के साथ और कार्यों से पारस्परिक सम्बन्ध |
ब्रह्मात्व का विकास:-
प्रश्न उत्पन्न होता है कि समान शिक्षा शिक्षार्थी का समान विकास क्यों नहीं करती है? एक कक्षा में पढ़ने वाले समस्त विद्यार्थी समान रूप से लाभान्वित क्यों नहीं होते हैं? बस यहीं पर व्यक्ति के विकास-स्तर वाला तत्व आ जाता है. व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को ग्रहण अपने विकास-स्तर के अनुसार करता है. प्रत्येक व्यक्ति के भीतर समान ब्रह्मत्त्व होता है, परन्तु ब्रह्मत्व का विकास सबमें समान नहीं होता है. इसी को लक्ष्य करके शिक्षा और शिक्षण के संदर्भ में दो नियमों की विशेष महत्व दिया जाता है-शिक्षक और शिक्षार्थी का व्यक्तिगत सम्पर्क हो जिससे शिक्षार्थी के विकास-स्तर के अनुरूप शिक्षक उसको शिक्षण-प्रशिक्षण एवं ज्ञान प्रदान करे तथा प्रत्येक विद्या अथवा ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं होता है, जिसका सीधा सा अर्थ यह होता है कि शिक्षा या ज्ञान का दान देते समय पात्रता का विचार किया जाना चाहिए. अपात्र को विद्या देना या तो अरण्य-रोदन एवं भैस के आगे बीन बजाने के समान व्यर्थ हो जाता है अथवा पात्र द्वारा उसका दुरुपयोग किया जाता है, |
शिक्षा का स्वरूप:-
जिस प्रकार व्यक्ति के विकास-स्तर के अनुरूप उसको प्रदान की जाने वाली शिक्षा का स्वरूप निर्धारित किया जाता है, उसी प्रकार समाज के विकास स्तर के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप एवं शिक्षा की पद्धति का निर्धारण किया जाता है. द्रष्टव्य यह है कि व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर शिक्षा और शिक्षा अन्योन्याश्रित होते है, व्यक्ति के विकास स्तर के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप निर्धारित किया जाता है और शिक्षा पद्धति अपने अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण एवं व्यक्ति का विकास करती है, अतएव जिस प्रकार व्यक्ति का विकास सतत् प्रक्रिया है, उसी प्रकार शिक्षा-पद्धति । को रचनात्मक एवं सार्थक होने के लिए निरन्तर परिवर्तनशील एवं देश-काल के अनुरूप साँचे में दलती रहने वाली होना चाहिए. ऐसा न होने पर शिक्षा-पद्धति समय की गति से पिछड़ जाती है और प्रभावी होकर त्याज्य हो जाती है. भारत की गुरुकुल पद्धति इसका ज्वलन्त उदाहरण सवगण सम्पन्न होने पर भी गुरुकुल-पद्धति अपने को बदल नहीं सकी यानी अपने को निर्धारित सीमाओं से बाहर नहीं निकाल सकी. परिणाम यह हुआ है कि वह केवल इतिहास की वस्तु ही बन कर रह गई उसकी लकीर पीटकर हम उसे सामाजिक एवं ग्राहक नहीं बना सके है., मारी आधुनिक शिक्षा-पद्धति की स्थिति भी बहुत कुछ ऐसी ही है
Credit R.P Chaturvedi and Education Is Growth.
Credit R.P Chaturvedi and Education Is Growth.
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सच्ची शिक्षा के पात्र बने || Sachchi Shiksha
Reviewed by Ritik Mishra
on
Monday, January 06, 2020
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